आनंद मठ

आनंद मठ 1870 के दशक में लिखा गया वो कालजयी उपन्यास है जिसकी छाया हमें आज भी नजर आती है जब कोई ये कहता नजर आता है कि हम वंदे मातरम नहीं गायेंगे, ये हमारे धर्म के खिलाफ है। आनंद मठ की पृष्ठभूमि में सन्यासी आंदोलन का संदर्भ है जब बंगाल के मुस्लिम शासन के विरुद्ध वहाँ के सन्यासी समुदाय ने प्रतिकार किया था। इसमें एक लंबा पद्य है जहाँ भारत भूमि को माँ दुर्गा का स्वरूप मानकर उनकी आराधना की गयी है। उसी पद्य के प्रारम्भिक भाग को हमारे राष्ट्रगीत के रूप में चुना गया।

इस उपन्यास के कुछ भाग आप नीचे पढ़ सकते हैं। पुस्तक खरीदने के लिए नीचे दिये लिंक पर जायें।

किंडल

हार्डकवर


उपक्रमणिका

दूर-दूर तक फैला हुआ जंगल. जंगल में ज्यादातर पेड़ शाल के थे, लेकिन इनके अलावा और भी कई तरह के पेड़ थे. शाखाओं और पत्तों से जुड़े हुए पेड़ों की अनंत श्रेणी दूर तक चली गयी थी. विच्छेद-शून्य, छिद्र-शून्य रोशनी के आने के जरा से मार्ग से भी विहीन ऐसे घनीभूत पत्तों का अनंत समुद्र कोस दर कोस, कोस दर कोस पवन की तरंगों पर तरंग छोड़ता हुआ सर्वत्र व्याप्त था. नीचे अंधकार. दोपहर में भी रोशनी का अभाव था. भयानक वातावरण. इस जगंल के अन्दर से कभी कोई आदमी नहीं गुजरता. पत्तों की निरन्तर मरमर तथा जंगली पशुपक्षियों के स्वर के अलावा कोई और आवाज इस जगंल के अंदर नहीं सुनाई देती.

एक तो यह विस्तृत अत्यंत निबिड़ अंधकारमय जंगल, उस पर रात का समय. रात का दूसरा पहर था. रात बेहद काली थी. जंगल के बाहर भी अंधकार था, कुछ नजर नहीं आ रहा था. जंगल के भीतर का अंधकार पाताल जैसे अंधकार की तरह था.

पशु-पक्षी बिल्कुल निस्तब्ध थे. जंगल में लाखों-करोड़ों पशु-पक्षी, कीट-पतंग रहते थे. कोई भी आवाज नहीं कर रहा था. बल्कि उस अंधकार को अनुभव किया जा सकता था, शब्दमयी पृथ्वी का वह निःशब्द भाव अनुभव नहीं किया जा सकता.

उस असीम जंगल में, उस सूचीभेद्य अंधकारमय रात में, उस अनुभवहीन निस्तब्धता में एकाएक आवाज हुई, ‘‘मेरी मनोकामना क्या सिद्ध नहीं होगी?’’

आवाज गूँजकर फिर उस जंगल की निस्तब्धता में डूब गई. कौन कहेगा कि उस जंगल में किसी आदमी की आवाज सुनाई दी थी? कुछ देर के बाद फिर आवाज हुई, फिर उस निस्तब्धता को चीरती आदमी की आवाज सुनाई दी, ‘‘मेरी मनेकामना क्या सिद्ध नहीं होगी ?’’

इस प्रकार तीन बार वह अंधकार समुद्र आलोड़ित हुआ, तब जवाब मिला, ‘‘तुम्हारा प्रण क्या है’’

‘‘मेरी जीवन-सर्वस्व.’’

‘‘जीवन तो तुच्छ है, सभी त्याग सकते हैं।’’

‘‘और क्या है ? और क्या दूँ ?’’

जवाब मिला, ‘‘भक्ति।’’


“एक अंग्रेज अपने जीवन के खतरे पर भी नहीं भागता, मुस्लिम तन पर पसीना आते ही भाग खड़ा होता है- वह शरबत की तलाश करता है- मानते हैं, अंग्रेजों के पास उनकी दृढ़ता है- जो भी वे शुरू करते हैं, उसे पूरा करते हैं, जबकि मुसलमानों में केवल मूर्खता है… फिर अंतिम शब्द साहस है… जबकि एक तोप-गोले [गिरते हुए] को देखकर मुसलमान अपने पूरे समुदाय के साथ भाग जायेगा- जबकि तोप-गोलों की गोला बारी के सामने, एक भी अंग्रेज नहीं भागेगा।” – पुस्तक का एक संवाद

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